मेरी तन्हाई
सफ़र जो अकेले ही तय करना है।
कुछ खो कर ,कुछ पा कर।
एक सफ़र पर चला हूँ में...
अकेला ,तन्हा और आवारा
ये सफ़र सिर्फ मेरा है,और मेरी ही होगी वो मंज़िल भी..
जिसके लिए में चला हूँ.......
मिलेगी मंज़िल एक दिन मुझे भी
होंगे सपने पूरे मेरे भी....
पर चलना मुझे अकेले है,दोड़ में सकता है।
छाले पड़े है पैरो में....
सहारा नहीं यहाँ किसी बैसाखी का..
ना कोई काँधा है हाथ रखने को...
चलता जा रहा हूँ,लोगों से छलता जा रहा हूँ।
मंज़िल दूर जा रही है, में उसके पास जा रहा हूँ।
और ना जाने कितना चलना हैं।
कुछ पता नहीं,कोई खबर नहीं।
जिस दिन उस मुकाम को हासिल कर लूँगा
जिसका नाम मंज़िल है।
जीत जाऊँगा में...
फिर उस शिखर पर साथ होगी
मेरी.....
"तन्हाई"
-ब्लेंक राइटर
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