हबीब जालिब , बग़ावत का दूसरा नाम ।

हबीब जालिब को क़रीब से जानने का मौक़ा मुझे तब मिला तब उनकी ग़ज़ल ‘दस्तूर’ ट्रेंड में आयी। उस दिन से अभी तक मैंने जितना भी उन्हें पढ़ा , उनके बारे के पढ़ा उससे एक बात तो तय है कि हबीब जालिब  जैसा निर्भीक, बेख़ौफ़ शायर दूसरा कोई हुआ हो। यूँ तो जालिब का जन्म पंजाब के होशियारपुर में 24 मार्च 1928 को  हुआ था। 1947 में भारत- पाक बंटवारे में जालिब को पाकिस्तान जाना पड़ा था।
1959 में जब पाकिस्तान में लोकतंत्र ख़त्म कर के जनरल अय्यूब ख़ान मार्शल लॉ लागू कर चुका था । तानाशाही अपने चरम पर थी..... अखबार, पत्रकार ,समूचा मीडिया सिर्फ़ सरकार की तारीफ़े करते थे। सरकार के ख़िलाफ़ बोलना या लिखने का मतलब
या तो मौत या क़ैद। उस वक़्त किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि कोई जवाँ लड़का
इंक़लाब के लिए अपनी उम्र , अपनी ज़िंदगी ताक़ पर रख देगा। एक बार रावलपिंडी रेडियो के एक लाइव मुशायरे में शायरों ने इश्क़, मौहब्बत पर ग़ज़लें पढ़ीं, सरकार की तारीफों की मगर एक नौजवान उस दिन पाकिस्तान समेत पूरी दुनिया को कुछ
बता देना चाहता था उसने बिना किसी ख़ौफ़ के पाकिस्तान के हालात, सरकार की
तानाशाही को बयान करते हुए कहा ...

“कहीं गैस का धुआं है, कहीं गोलियों की बारिश
शब-ए-अहद-ए-कमनिगाही तुझे किस तरह सुनाएं”

हुकुमत बोखला गयी ,मुशायरा तुरंत रोक दिया गया। रेडियो स्टेशन के डायरेक्टर और जालिब को जेल भेज दिया गया।
उस दिन से बेख़ौफ़ जालिब अलग अलग तरीक़े से सरकार की काली और क्रूर तस्वीर अपनी क़लम से लिखते और कहते रहे ।जिसके चलते अलग-अलग हुकूमतों द्वारा उन्हें जेल में बंद किये जाने का सिलसिला उनकी आख़री साँस तक चला। अपनी ज़िंदगी के कई साल उन्होंने जेल में गुज़ारे मगर वह कभी डरे नहीं । दरवारी शायर बनने से बेहतर उन्हें मौत लगती थी।
उनकी ग़ज़ले , नज़्में, जैसे 'दस्तूर', 'मैंने उस से ये कहा' , 'ज़ुल्मत को ज़िया' मुशीर और तमाम उनका लिखा हुआ उस दौर में पाकिस्तान की आवाम की आवाज़ बन गया था।
जालिब लिखते है कि..
‘और सब भूल गए हर्फ़-ए-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना’

जालिब की नज़्मों के ख़ौफ़ का आलम यूँ था कि जब जालिब पढ़ते थे सरकार वहाँ  पुलिस भेजती थी ताकि जालिब सरकार के ख़िलाफ़ कुछ न बोलें। फ़क़त जालिब डरने वालों में से नहीं थे ऐसे ही एक मुशायरे में जालिब जब पढ़ने आए तो सामने पुलिस अधिकारियों को बैठे देख कर भी उन्होंने पढ़ा

‘दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

मैं भी ख़ाइफ़ नहीं तख़्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूँ कह दो अग़्यार से
क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़ेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूँ
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूँ
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूँ
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता

हमेंशा की तरह उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।
जब उनके साथी शायर सरकार की चाटुकारिता करके धन , सम्मान , औहदा सब कुछ
हाशिल कर रहे थे उसी दौरान जालिब हुकूमत से लोहा ले रहे थे।
अस्सी के दशक में ज़िया उल हक़ सरकार की धज्जियाँ उड़ाते हुए जालिब ने लिखा कि

ज़ुल्मत को ज़िया, सरसर को सबा, बंदे को ख़ुदा क्या लिखना
पत्थर को गुहर, दीवार को दर, कर्गस को हुमा क्या लिखना।
(‘जिया का अर्थ रोशनी होता है)

हबीब जालिब के चुनिंदा शेर

-अपनों ने वो रंज दिए हैं बेगाने याद आते हैं
देख के उस बस्ती की हालत वीराने याद आते हैं।

-लुट गई इस दौर में अहल-ए-क़लम की आबरू
बिक रहे हैं अब सहाफ़ी बेसवाओं की जगह’’

-तुमसे पहले वो जो इक शख्स यहां तख़्त नशीं था
उसको भी अपने ख़ुदा होने का इतना ही यकीं था”

1993 में क़लम के इस सच्चे सिपाही ने दुनिया को अलविदा कह दिया ।
जालिब हर दौर में प्रासंगिक रहेंगे। उन जैसा शायर ना कभी हुआ है ना कभी होगा
उनका पूरा जीवन आज के दौर के उन तमाम शायरों, पत्रकारों और क़लमकार लोगों कि लिए एक प्रेरणा है जो हुकुमतों के ख़ौफ़ से अपनी क़लम को दरवारी लेखन में ज़ाया कर रहे है।

(आज जालिब की जयंती है)
-संकल्प जैन

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