नज़्म

वो आख़री इजहार-ए-मौहब्बत उतना ही मुश्किल था
 जितना मुश्किल होता है तुम्हें देख कर अनदेखा करना।

वो आख़री बार तुमसे कहना कि अपनी ज़िंदगी से जादा
 मौहब्बत में तुमसे करता हूँ....
वो तुम्हारा ख़ामोश रहना हमेशा की तरह ,

ना जाने कितने ही सवाल उस ख़ामोशी के साये में पल रहे होंगे 
और उन सवालों का जवाब मेरे लबों पर आकर ठहर गया था।

कह देना चाहता था में सब कुछ...
बहुत कुछ पूछ लेना चाहता था...

मगर तुम्हारी ख़ामोशी मेरे हर सवाल को लबों पर आने से 
पहले ही एक गहरी नींद में सुला दे रही थी।
यक़ीं मानो मेरी मौहब्बत कभी कम नहीं होंगी तुम्हारे लिए , ना कम होगा ये दीवनापन

मेरी मौहब्बत उन चुनिंदा मौहब्बतों में से एक है जिनमें प्यार पाने से जादा प्यार देना ज़रूरी होता है । 

जहाँ इज़्ज़त करना प्यार की सही पहचान होती है
और में तुम्हारी बहुत इज़्ज़त करता हूँ….।

तुम्हें पाना एक ख़्वाब था, पाने से पहले खोना एक दर्द है
और फिर दुनिया के किसी कोने में ,किसी और जन्म में 
इस दुनिया से कहीं दूर …तुम्हें पाना एक उम्मीद है।

उम्मीद जीने का होंसला है ,में जी रहा हूँ इसी के सहारे…..
क्यूँकि कितना भी बह ले दरिया ,मिलते नहीं किनारे……
-ब्लेंक राइटर



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