""तुझे पा लू क्या...?"""

कुछ वक़्त इन लम्हों के दामन से चुरा लू क्या...?
तू लाख गेर सही पल भर के लिए अपना बना लू क्या..?
कुछ नमी नमी सी उतर आती है इन आँखों में हरदम
जो समुंदर है मोहब्त का इन आँखों में बसा लू क्या...?

मेने नाज़ुक क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे
तू कहे तो मुक़द्दर तुझे अपना बना लू क्या...?

ये सर्द हबाएँ ना जाने कह धुँआ बनकर उड़ जाए
अपनी बाहों के आग़ोश में तुझे समा लू क्या...?

जो ये फिज़ा में घुली महक चाँदनी तेरे लबों से निकली है
ताउम्र में इसे अपने सुर्ख़ होठों पर सज़ा लू क्या...??

और कल तुम कसमे खा रहे थे साथ जीने मरने की
में खो दू "ख़ुदको" तुझमे और "तुझे" पा लू क्या..?

-ब्लेंक राइटर

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